एक दलीय प्रभुत्व का दौर क्या है ?
🔹एक दलीय प्रभुत्व के दौर का अर्थ : – स्वतन्त्रता के बाद केवल काँग्रेस पार्टी सत्ता में रही । उसे 1952 के पहले, 1957 के दूसरे व 1967 के तीसरे आम चुनावों में विशाल बहुमत मिला। अन्य पार्टियाँ इतनी कमजोर थीं कि वे काँग्रेस से प्रतियोगिता करके सत्ता में नहीं आ सकती थीं। इस स्थिति को एक दलीय प्रभुत्व का दौर कहते हैं ।
एकल आधिपत्य दल व्यवस्था : –
🔹 जब एक ही दल निरन्तर कुछ वर्षों तक सत्ता में बना रहता है तो उसे एकल आधिपत्य दल व्यवस्था कहते हैं।
🔹 उदाहरणार्थ :- स्वतन्त्रता के बाद केवल काँग्रेस पार्टी सत्ता में रही। उसे 1952 के पहले, 1957 के दूसरे व 1962 के तीसरे आम चुनावों में विशाल बहुमत मिला। अन्य पार्टियाँ इतनी कमजोर थीं कि वे काँग्रेस से प्रतियोगिता करके सत्ता में नहीं आ सकती थीं। अत: 1952 से 1967 तक एक ही दल कांग्रेस का प्रभुत्व बना रहा।
एक दलीय व्यवस्था : –
🔹 यदि किसी देश में केवल एक ही दल हो तथा शासन-शक्ति का प्रयोग करने वाले सभी सदस्य इस एक ही राजनीतिक दल के सदस्य हो, तो वहाँ की दल पद्धति को एक दलीय कहा जाता है।
🔹 किसी देश की दल व्यवस्था उस समय एक दलीय व्यवस्था कहलाती है जब वहाँ : –
- किसी एक दल विशेष का सबसे अधिक प्रभाव हो तथा सत्ता पर उसकी पकड़ मजबूत हो ।
 - अन्य राजनीतिक दल अस्तित्व में होते हैं, परन्तु विशेष दल की तुलना में उनकी शक्ति नगण्य होती है।
 - सम्पूर्ण देश में किसी दल विशेष का प्रभाव होता है इस दृष्टि से अन्य दल बहुत पिछड़े होते हैं।
 
बहुदलीय व्यवस्था का अर्थ : –
🔹 बहुदलीय व्यवस्था का अर्थ है राजनीतिक तन्त्र में किसी एक दल अथवा दो दल के बजाय कई दलों की उपस्थिति तथा इन सभी दलों के द्वारा सत्ता प्राप्ति के प्रयत्न करना ।
बहुदलीय व्यवस्था : –
🔹 बहुदलीय व्यवस्था वह राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें बहुत से राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर चुनावों में भाग लेते हैं तथा सभी दल पृथक रूप या गठबंधन के रूप में सरकारी विभागों पर नियन्त्रण की क्षमता रखते हैं।
लोकतंत्र : –
🔹 शासन की वह प्रणाली जिसमें जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधियों द्वारा सम्पूर्ण जनता के हित को दृष्टि में रखकर शासन करती है। इसे प्रजातंत्र या जनतंत्र भी कहा जाता है।
लोकतन्त्र को प्रतिनिधि शासन क्यों कहा जाता है ?
🔹 इसमें जनता अपनी शक्ति अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंप देती है जो अपने निर्वाचकों के हितों की रक्षा करते हैं तथा उनके प्रति उत्तरदायी होते हैं।
अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र : –
🔹 इसमें सत्ता जनता में निहित होती है किन्तु इसका प्रयोग जनता द्वार निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है जो जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
भारत में चुनाव आयोग का गठन एवं प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त एवं इसके कार्य : –
🔹 भारत में चुनाव आयोग का गठन जनवरी 1950 में हुआ। इस आयोग के पहले चुनाव आयुक्त का नाम सुकुमार सेन था । भारत का चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक निकाय है। यह संविधान के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत कार्यरत है। आयोग लोकसभा, राज्यसभा, विधान सभाओं, विधान परिषदों, राष्ट्रपति पद एवं उपराष्ट्रपति पद की चुनावी व्यवस्था करता है।
चुनाव आयोग की चुनौतियाँ : –
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाना।
 - चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन ।
 - मतदाता सूची बनाने के मार्ग में बाधाए ।
 - अधिकारियों और चुनावकर्मियों को प्रशिक्षित करना ।
 - कम साक्षरता के चलते मतदान की विशेष पद्धति के बारे में सोचना ।
 
मतदान के तरीके एवं उनमें बदलाव : –
🔹 प्रथम दो आम चुनावों के बाद जो व्यवस्था अपनायी गई उसमें मतपत्र पर सभी उम्मीदवारों के नाम व प्रतीक होते थे। तब मतदाता को अपनी पसंद के उम्मीदवार के सामने मुहर लगानी होती थी। यह विधि लगभग चालीस वर्ष तक प्रचलन में रही ।
🔹 1990 के अंत में निर्वाचन आयोग ने मतदाताओं की प्राथमिकताओं के रिकॉर्ड हेतु इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) की विधि आरम्भ की। सन् 2004 में इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया।
निर्वाचन व्यवस्था में सुधार : –
- मतपत्र के स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग,
 - प्रत्याशियों की जमानत राशि में वृद्धि,
 - दो से अधिक चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध,
 - चुनाव प्रचार की अवधि 21 दिन से घटाकर 14 दिन ।
 
भारत का पहला आम चुनाव ( 1952 ) : –
🔹 अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 तक प्रथम आम चुनाव हुए। उस वक्त देश में 17 करोड़ मतदाता थे। इन्हें 3200 विधायक और लोकसभा के लिए 489 सांसद चुनने थे। इन मतदाताओं में महज 15 फीसदी साक्षर थे। इस कारण चुनाव आयोग को मतदान की विशेष पद्धति के बारे में भी सोचना पड़ा। चुनाव आयोग ने चुनाव कराने के लिए 3 लाख से ज्यादा अधिकारियों और चुनावकर्मियों को प्रशिक्षित किया।
पहले चुनाव के बारे में राय : –
🔹 एक हिंदुस्तानी संपादक ने इसे ” इतिहास का सबसे बड़ा जुआ” करार दिया। ‘आर्गनाइजर’ नाम की पत्रिका ने लिखा कि जवाहरलाल नेहरू “अपने जीवित रहते ही यह देख लेंगे और पछताएँगे कि भारत में सार्वभौम मताधिकार असफल रहा।” इंडियन सिविल सर्विस के एक अँग्रेज़ नुमाइंदे का दावा था कि “आने वाला वक्त और अब से कहीं ज्यादा जानकार दौर बड़े विस्मय से लाखों अनपढ़ लोगों के मतदान की यह बेहूदी नौटंकी देखेगा। “
पहला आम चुनाव ( 1952 ) के चुनाव परिणाम : –
- भारत में लोकतंत्र सफल हो रहा है।
 - लोगो ने चुनाव में भाग लेकर बढ़त बनाई ।
 - चुनाव में युवाओं के बीच कड़ा मुक़ाबला हुआ हारे वाले ने भी नतीजों को सही बताया ।
 - भारतीय जनता ने इस विचारधारा के प्रयोग को अमली जामा पहनाया और सभी आलोचकों के मुख बंद हो गये।
 - चुनावो में कांग्रेस ने 364 सीटर और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
 - दूसरी सबसे बड़ी पार्टी रही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया जिसे 16 सीटे हासिल हुई।
 - जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री थे।
 
प्रथम आम चुनाव को इतिहास का सबसे बड़ा जुआ की संज्ञा देकर क्यों आशंकाए व्यक्त की गई ?
- मतदाताओं की विशाल संख्या ।
 - गरीब व निरक्षर मतदाता ।
 - चुनाव हेतु संसाधनों की कमी ।
 - प्रशिक्षित चुनाव कर्मियों का अभाव ।
 
दुसरा आम चुनाव 1957 : –
🔹 1957 में भारत में दूसरे आम चुनाव हुए इस बार भी स्तिथि पिछली बार की तरह ही रही और कांग्रेस ने लगभग सभी जगह आराम से चुनाव जीत लिए लोक सभा में कांग्रेस को 371 सीटे मिली। जवाहर लाल नेहरू दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री बने पर केरल में कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव दिखा और कांग्रेस केरल में सरकार नहीं बना पाई।
केरल में कम्युनिस्टों की प्रथम चुनावी जीत : –
🔹 1957 में काँग्रेस पार्टी को केरल में हार का मुँह देखना पड़ा। मार्च 1957 में विधानसभा के चुनाव हुए, उसमें कम्युनिस्ट पार्टी को केरल की विधानसभा के लिए सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। पाँच स्वतन्त्र उम्मीदवारों का भी समर्थन इस पार्टी को प्राप्त था। राज्यपाल ने कम्युनिस्ट विधायक दल के नेता ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद को सरकार बनाने का न्यौता दिया। यह पहला अवसर था जब कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार लोकतान्त्रिक चुनावों के द्वारा बनी।
संविधान की धारा 356 का दुरुपयोग : –
🔹 केरल में सत्ता से बेदखल होने पर काँग्रेस पार्टी ने निर्वाचित सरकार के खिलाफ मुक्ति संघर्ष छेड़ दिया । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में इस वायदे के साथ आई थी कि वह कुछ क्रान्तिकारी तथा प्रगतिशील नीतिगत पहल करेगी। 1959 में केन्द्र की काँग्रेस सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया। यह फैसला विवादास्पद साबित हुआ ।
तीसरा आम चुनाव 1962 : –
🔹 1962 में भारत में तीसरा आम चुनाव हुआ जिसमे फिर से ही कांग्रेस बड़े आराम से लगभग सभी जगहों पर चुनाव जीत गई। इस चुनाव में कांग्रेस ने लोक सभा में 361 सीटे जीती और जवाहर लाल नेहरू तीसरी बार प्रधानमंत्री बने ।
प्रथम तीन चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व : –
🔹 पहले तीन आम चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रभुत्व रहा।
- प्रथम आम चुनाव (1951-52) 364सीटें
 - दूसरा आम चुनाव (1957) 371 सीटें
 - तीसरा आम चुनाव (1962)361 सीटें
 
कांग्रेस का प्रभुत्व : –
🔹 स्वतन्त्रता के उपरान्त कांग्रेस अकेली सत्ता में रही। सन् 1952 के प्रथम आम चुनावों में कांग्रेस ने आश्चर्यजनक बहुमत प्राप्त किया। इसके बाद 1957 के द्वितीय आम चुनावों तथा 1962 के तृतीय आम चुनावों में भी यही स्थिति बनी रही। अन्य राजनीतिक दल इतने कमजोर थे कि वे कांग्रेस के साथ सत्ता-संघर्ष नहीं कर सके।
कांग्रेस के प्रथम तीन आम चुनावों में वर्चस्व / प्रभुत्व के कारण : –
- स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका ।
 - सुसंगठित पार्टी ।
 - सबसे पुराना राजनीतिक दल ।
 - पार्टी का राष्ट्र व्यापी नेटवर्क ।
 - प्रसिद्ध नेता ।
 - सबको समेटकर मेलजोल के साथ चलने की प्रकृति ।
 - भारत की चुनाव प्रणाली ।
 
सोशलिस्ट पार्टी : –
- स्थापना : – 1934 में
 - संस्थापक :- आचार्य नरेंद्र देव
 - उद्देश्य : – समाजवादी कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा परिवर्तन कर्मी और समतावादी बनाना चाहते थे।
 
कांग्रेस की प्रकृति : –
🔹 कांग्रेस की प्रकृति एक सामाजिक और विचारधारात्मक गठबंधन की है। काँग्रेस का जन्म 1885 में हुआ था। शुरू में यह समाज के उच्च व सम्पन्न वर्गों का एक हित समूह मात्र थी, लेकिन 20वीं शताब्दी में इसने जन आन्दोलन का रूप लिया। काँग्रेस ने परस्पर विरोधी हितों के अनेक समूहों को एक साथ जोड़ा। कांग्रेस में किसान और उद्योगपति, शहर के बाशिंदे और गाँव के निवासी, मज़दूर और मालिक एवं मध्य निम्न और उच्च वर्ग तथा जाति सबको जगह मिली। कांग्रेस ने अपने अंदर गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और के मध्यमार्गियों को समाहित किया।
कांग्रेस शासन की गठबंधन राजनीति : –
🔹 कांग्रेस के गठबंधनी स्वभाव ने विपक्षी दलों के सामने समस्या खड़ी की और कांग्रेस को असाधारण शक्ति दी। चुनावी प्रतिस्पर्धा के पहले दशक में कांग्रेस ने शासक दल की भूमिका निभायी और विपक्षी की भी इसी कारण भारतीय राजनीति के इस कालखंड को कांग्रेस प्रणाली कहा जाता है।
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया : –
- स्थापना : – 1941 में
 - संस्थापक : – A.k. गोपालन
 - उद्देश्य : – देश की समस्या के समाधान के लिए साम्यवाद की राह अपनाना ही उचित होगा
 - 1951 में हिंसक क्रान्ति का रास्ता त्यागा आम चुनावों में भागीदारी। 1964 में विभाजन हुआ।
 - चीन समर्थकों ने भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी नाम से दल बनाया।
 - 1947 में सत्ता के हस्तान्तरण को सच्ची आज़ादी नहीं माना।
 - तेलंगाना में हिंसक विद्रोह को बढ़ावा दिया।
 
भारतीय जनसंघ : –
- स्थापना : – भारतीय जनसंघ का गठन 1951 में हुआ था।
 - संस्थापक : – श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक-अध्यक्ष थे।
 - उद्देश्य : – जनसंघ ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र’ के विचार पर जोर दिया।
 
जनसंघ की विचारधारा : –
- एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का विचार |
 - भारतीय संस्कृति और परम्परा के आधार पर आधुनिक प्रगतिशील और ताकतवर भारत की कल्पना ।
 - भारत व पाकिस्तान को मिलाकर अखण्ड भारत का पक्षधर
 - अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए आन्दोलन किया।
 
🔹 जनसंघ अपनी विचारधारा और कार्यक्रमों की दृष्टि से अन्य दलों से अलग है। जनसंघ ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र’ के विचार का समर्थन करती है। यह ऐसा मानती है कि देश भारतीय संस्कृति और परम्परा के आधार पर आधुनिक, प्रगतिशील और शक्तिशाली बन सकता है। जनसंघ ने भारत-पाकिस्तान को एक करके ‘अखण्ड भारत’ बनाने की बात कही थी। अंग्रेजी को हटाकर हिंदी को राजभाषा बनाने के आंदोलन में यह पार्टी सबसे आगे थी।
समाजवादी दलों और कम्युनिस्ट पार्टी में अन्तर : –
🔸 समाजवादी दल : –
- ये लोकतान्त्रिक विचारधारा में विश्वास करते हैं।
 - पूँजीवाद और सामंतवाद को पूर्णतया समाप्त करना नहीं चाहते।
 - सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए लोकतान्त्रिक तरीकों में विश्वास करते हैं।
 
🔸 कम्युनिस्ट पार्टी : –
- ये सर्वहारा के अधिनायकवादी में विश्वास करते हैं।
 - पूँजीवाद व सामन्तवाद को पूर्णतया समाप्त करने की पक्षधर है।
 - यह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु हिंसक साधनों में विश्वास रखती है।
 
कांग्रेस पार्टी के उदय व पतन के मुख्य कारण : –
🔹 1947 से 1967 तक कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व का दौर चलता रहा । इसके कई कारण थे, जैसे- वही देश की सबसे बड़ी व देशव्यापी पार्टी थी। दूसरे, इसे नेहरू का चमत्कारी नेतृत्व प्राप्त था। तीसरे, विपक्षी दल अत्यन्त दुर्बल थे ।
🔹 लेकिन 1967 के चुनावों के बाद कांग्रेस का पतन हुआ। इसके कई कारण थे, जैसे- अब उसके पास नेहरू जैसा प्रभावशाली नेता नहीं था। दूसरे, अनेक प्रान्तीय नेताओं ने कांग्रेस पार्टी छोड़कर अपनी अलग पार्टियाँ बना लीं। तीसरे, क्षेत्रीय स्तरों पर विपक्षी पार्टियों ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली।
पार्टियों के भीतर गठबन्धन तथा पार्टियों के बीच गठबंधन में अन्तर : –
🔹 पार्टी के भीतर गठबन्धन भारत में प्रथम आम चुनावों से ही देखने को मिला। जब कांग्रेस एक सतरंगे सामाजिक व विचारधारात्मक गठबंधन के रूप में दिखी। अलग-अलग गुटों के होने से इसका स्वभाव सहनशील बना । तथा कांग्रेस के भीतर ही संगठन का ढांचा अलग होने पर भी व्यवस्था में सन्तुलन साधने के एक साधन के रूप में काम किया।
🔹 वर्तमान राजनीति में पार्टियों के बीच गठबन्धन दिखाई देता है जहाँ भारतीय लोकतंत्र हित में अलग-अलग विचार धाराओं को मानने वाले दल आम सहमति के मुद्दो पर मिली जुली सरकार बनाते है परन्तु अपने दल की नीतिया नहीं बदलते ।
भारत में विपक्षी दल के उदय पर : –
🔹 स्वतन्त्रता के बाद भारत में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। अन्य पार्टियाँ थीं, लेकिन उनकी स्थिति बहुत कमजोर थी। इसीलिए 1952 के पहले चुनावों से लेकर 1967 के चौथे चुनावों तक इसी पार्टी का दबदबा बना रहा। केन्द्र पर राज्यों में (जम्मू कश्मीर को छोड़कर) यही पार्टी सत्ता में रही। 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार बनाई तो 1959 में उसे अनु. 356 के अन्तर्गत भंग कर दिया गया। सिद्धान्त में देश में बहुदलीय व्यवस्था थी, वास्तव कांग्रेस के प्रभुत्व को देखते हुए यह एकल आधिपत्यशाली दल व्यवस्था थी ।
🔹 प्रेस, मीडिया, विरोधी दल, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता आदि लोकतन्त्र की व्यवस्था के अनिवार्य घटक माने जाते हैं। बहुदलीय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अनुकूल माना जाता है। जब तक कांग्रेस ने विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, समूहों, क्षेत्रीय हितों को ध्यान में रखा और सभी को साथ लेकर चलने की नीति का अनुसरण किया तब तक केन्द्र और अधिकांश राज्यों में उसकी सरकार रही, किन्तु जब मनमाने ढंग से धारा 356 का प्रयोग कर राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया अथवा आपातकाल की घोषणा की तो लोगों में विरोध के स्वर मुखरित हुए और अन्ततः जनता ने उसे सत्ता से हटा दिया। 1977 में अनेक विरोधी दल एक छतरी के नीचे आये उन्होंने चुनाव जीता।